तन,मन,धन,....सब कुछ है तेरा
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ऋषि शास्त्र कारों और विचारको ने इस संसार को भवसागर कहां है । यहां बड़े बड़े आए और अपना वैभव दिखाते हुए न जाने कहां चले गए । गए तो ऐसे ही गए कि फिर लौट कर ना कभी आए और न कोई नामोनिशान रहा । रावण की तो सोने की लंका थी । उस के बल का क्या कहना ? कई देवता उसके द्वार पर पूजा कराने आते थे । यम उसकी खूंटी में बंधे थे ।इसी तरह कंस ने तो अपने बचाव के लिए बाल वध जैसा जघन्य अपराध किया । इन सब के नाम हमेशा के लिए कलंकित हो गए । उन्हें इतिहास हमेशा इसी नजरिए से देखता है और वे नकारात्मकता के प्रतीक के रूप में उसमें दर्द भी हुए ।
सामान्यत है ईश्वर की कृपा से या प्रकृति के विधान से हमें तन मन और धन के रूप में कुछ उपलब्धियां हासिल होती हैं । इनमें से धन चल और अचल संपत्ति के रूप में होता है। धन के अतिरिक्त विद्या और शारीरिक बल को भी महत्व दिया जाता है। इन सभी की प्राप्ति होने पर हमारे भीतर पर्याय अहंकार का भाव घर कर जाता है । उदाहरण के लिए यदि हम हैं स्वस्थ और सुंदर शरीर प्राप्त हो जाता है तो यह ईश्वर की पूर्ण कृपा होती है। तो हम कुछ आत्मा मुग्ध हो अहंकार के शिकार हो जाते हैं ,और कम स्वस्थ और सुंदर व्यक्ति को हीन दृष्टि से देखते हैं ।अगर हमारे पास शारीरिक बल पद् बल और जन बल है तो कहना ही क्या ?तो इस स्थिति में हमारा अंहकार आसमान छूने लगता है और हम अपने आगे हर किसी को तुच्छ समझने लगते है ।
बस यहीं से प्रभु सत्ता से हम दूर होते चले जाते है , हम भूल जाते है उसकी सत्ता को ,भूल जाते है कि सब कुछ उसकी मर्जी पर है।, एक नजर गर उसकी तिरछी हुई तो सब कुछ एक पल में खत्म .....।
बस मित्रो हमें यही ध्यान रखना है कि हमारे पास कुछ भी नहीं है और हम उस दीनानाथ के आश्रित हैं जिनका आश्रय सारे जगत को प्राप्त है ।इसलिए जिस दिन हम अपने पास बहुत कुछ होने के भाव को त्याग देंगे, उसी दिन सब कुछ यानी ईश्वर आपका और आपके अंतर्मन में होगा । इस स्थिति में आप दुनिया के सभी संकटों से मुक्त हो जाते हैं।
जब हमें ये ज्ञात हो गया है कि सब कुछ उसी के हाथ में है तो घमण्ड , अंहकार किस बात का । उसकी सत्ता उसी के हाथ सौप कर तो देखें , भगवान ने गीता में भी कहा है कि हमें तो बस कर्म करना है , फल तो उसे ही देना है । संसार में जो कुछ हमें प्राप्त है वो सब कुछ उन्ही का है ।